नहीं दूर था मंदिर, घर से मेरे,
पर घर से मैं निकलता नहीं
पर घर से मैं निकलता नहीं
अब आता हूँ पर शाम-सवेरे,
किसी मूरत में क्यूँ मिलता नहीं?
मैं पेड़ में हूँ, मैं पत्तों में,
उस फूल में भी, जो खिलता नहीं
मैं ख़ुशी मैं हूँ, मैं जलसों में,
उस ज़ख्म में भी जो सिलता नहीं...
उस ज़ख्म में भी जो सिलता नहीं...
मैं उम्मीद का सूरज, मैं ढलता नहीं
किसी को मिल जाता हूँ एक बूँद में मैं,
किसी को सागर में भी मिलता नहीं...
किसी को सागर में भी मिलता नहीं...
वो हर दिल जो सच्चा लगता है
मैं क्यूँ मिलूँ किसी मूरत में?
मुझे भी घर में अच्छा लगता है...!
मुझे भी घर में अच्छा लगता है...!